बस्तर के पारम्परिक आहार
हम सभी मानते हैं कि किसी भी प्रान्त का खान -पान वहां की भौगोलिक स्थिति , जलवायु और वहां होने वाली फसलों पर निर्भर करता है। छत्तीसगढ़ एक वर्षा और वन बहुल प्रान्त है, यहाँ धान ,हरी भाजी -सब्जियां और मछली का उत्पादन बड़ी मात्रा में होता है और यही सामग्रियां यहाँ का मुख्य आहार हैं। इंदिरा गाँधी राष्ट्रिय कृषि विश्वविद्यालय , रायपुर के कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार छत्तीसगढ़ में देशज धान की लगभग १५०० प्रजातियां पाई जाती हैं जिनके जर्म प्लाज्म उनके पास संरक्षित हैं। धान के अतिरिक्त यहाँ तिवरा , कुल्थी ,मक्का ,मसूर ,अरहर, उड़द तथ अलसी आदि का भी उत्पादन होता है। वनोत्पाद से महुआ और इमली बहुतायत से प्राप्त होती है। सगुजा की अरहर दाल और बस्तर की कच्ची हल्दी और पुटु मशरूम दूर -दूर तक प्रसिद्ध हैं ।
खान -पान की दृष्टि से भी छत्तीसगढ़ में सरगुजा-रायगढ़ क्षेत्र , रायपुर-बिलासपुर का मैदानी इलाका और बस्तर क्षेत्र में भिन्नताएं हैं। चावल और चावल से बने भोज्य सभी जगह लोकप्रिय हैं परन्तु स्थानिय व्यंजनों और पकवानों में विभिन्नता है। बस्तर में मांसाहार की प्रचुरता है ,बकरा , मुर्गा ,मछली के साथ - साथ अनेक समुदायों में सूअर पालने और उसका मांस खाने की प्रथा है। यहाँ नशीले द्रव्यों का सेवन सामन्य है और सल्फी ,महुआ तथा लांदा को तरल भोजन समान माना जाता है।
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हाट बाजार में नाशीले पेय बेचती महिलाएं।
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चावल से बना नाशीले पेय लांदा ।
बस्तर के आदिवासियों के आहार में प्राकृतिक रूप से उगने अथवा प्राप्त होने वाली सामग्री की प्रमुखता है। यह वह आहार सामग्रियां हैं जिन्हें उगाने अथवा उनकी खेती करने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि बरसात और उसके बाद के मौसम में वे स्वतः ही उग आते हैं। जैसे अनेक प्रकार की पत्ता भाजियां , जमीन के नीचे उगने वाले कांदा , पुराने वृक्षों के आस पास उगने वाले फुटु आदि। वे अनेक प्रकार की छोटी मछलियों और झींगों को खाते हैं जो वर्षा के दौरान खेतो ,जोहड़ों , गड्डों , तालाबों और नालों में उत्पन्न हो जाती हैं। आस -पास के वनों में उगने वाले महुआ ,सीताफल , आंवला और इमली का भी वे भरपूर सेवन करते हैं।
बस्तर क्षेत्र के आहार को उनकी मूल सामग्री के आधार पर कुछ समूहों में बांटा जा सकता है , जैसे बांस ,फुटु या मशरूम , पत्ता -भाजी , कंद या कांदा , कुमड़ा आदि।
बांस , बास्ता –
बस्तर में बांस बहुतायत से उगते हैं ,वर्षा ऋतु में बांस का अंकुरण बड़े पैमाने पर होता है। ग्रामीणजन इस समय इसे भोजन स्वरुप खाते हैं। बास्ता , नए अंकुरित होते बांस के डंठल को पतले -पतले चिप्स जैसा काट कर उससे बनाई जाने वाली सब्जी है। इसे रसेदार और सूखी सब्जी जैसा पकाया जाता है, इसे दाल या अन्य सब्जियों में मिलकर भी पकाते हैं। यह आदिवासियों का प्रिय भोजन है।
बस्तर में बांस बहुतायत से उगते हैं।
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अंकुरित होते बांस के डंठल जिन्हे धोकर , साफ करके बिक्री हेतु रखा गया है।
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बांस के डंठल की पतली परतें कटती भतरा आदिवासी महिला।
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बांस के डंठल की पतली परतें काट कर तैयार किया गया कच्चा बास्ता।
फुटु –
बस्तर एक वर्षा और जंगल बहुल क्षेत्र है ,यहाँ बरसात के मौसम में जमीन और पुराने वृक्षों पर अनेक प्रकार के मशरूम उगते हैं जिन्हे यहाँ फुटु कहा जाता है। इसे यहाँ एक भोज्य पदार्थ के रूप में खाया जाता है। फुटु अनेक प्रकार के होते हैं ,माना जाता है कि वृक्षों पर उगने वाले फुटु बेस्वाद और जहरीले भी होते हैं अतः खाने में उनका प्रयोग नहीं किया जाता। जमीन पर उगने वाले फुटु भी कई प्रकार के होते हैं जैसे डेंगुर फुटु, पान फुटु ,हराडूला फुटु आदि। डेंगुर फुटु जो दीमक की बाम्बी के आस -पास उगता है , सर्वश्रेष्ठ मन जाता है। दशहरा उत्सव के समय उगने वाला फुटु, दशहरा फुटु कहलाता है। इसे अनेक प्रकार से पकाकर खाया जाता है।
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जगदलपुर हाट बाजार में फुटु बेचती महिला।
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वर्षा के मौसम में खेतों में उगे हुए मनई फुटु।
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डेंगुर फुटु।
भाजी -
बरसात और उसके बाद के मौसम में विभिन्न प्रकार भाजी प्रचुरता से उपलब्ध होती हैं। स्वतः उगने वाले पौधों तथा उगाइ गयी सब्जियों के पत्ते भी भाजी की तरह खाये जाते हैं। इन्हे छौंक कर अथवा दाल में मिलकर पकाया जाता है। बस्तर की कुछ लोकप्रिय भाजियां हैं - लाल भाजी , तेज भाजी , खट्टा भाजी , चेंच भाजी, गोभी के पत्ते भाजी आदि।
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फूल गोभी के ताजे हरे पत्ते बस्तर में भाजी के रूप में खाये जाते हैं। इनकी भुजिया छोंकी जाती है। इन पत्तियों की गड्डियां बनाकर बेचीं जाती हैं।
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कुमड़ा भाजी
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लाल भाजी, वर्ष भर मिलने वाली एक सब्जी है ,क्योंकि इसके पत्ते लाल रंग के होते हैं इसलिए इसे लाल भाजी कहते हैं। इसके पत्ते बस्तर में भाजी के रूप में खाये जाते हैं। इनकी भुजिया छोंकी जाती है। इन पत्तियों की ढेरियां बनाकर बेचीं जाती हैं।
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खट्टा भाजी, बरसात और उसके कुछ समय बाद तक मिलती है। यह स्वतः भी उगती है और इसे उगाया भी जाता है। यह एक झाड़ी नुमा पौधे के रूप में उगती है और इस पौधे का प्रत्येक अंग उपयोगी होता है। इसके पत्ते बस्तर में भाजी के रूप में खाये जाते हैं। इनकी भुजिया छोंकी जाती है।इसके लाल रंग के फूल टमाटर की तरह खट्टे होते है ,इन्हे चटनी या सब्जी में मिलकर पकने से सब्जी का स्वाद बढ़ जाता है। इन फूलों को सुखाकर रख लिया जाता है और गर्मियों के मौसम में उपयोग में लाया जाता है। इसके बीज से तेल निकला जाता है। बीज सुखाकर उसके पावडर का प्रयोग गर्मी लग जाने पर औषधि के रूप में किया जाता है। इसके डंठल के छिलके से रस्सी बनाई जाती है।
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तेज भाजी को चेंच भाजी भी कहते हैं।यह आमतौर पर बरसात के मौसम में खाई जाने वाली सामान्य भाजी है। इसकी खेती की जाती है।
कांदा -
कांदा , जमीन के नीचे उगने ट्यूबर हैं , इसकी अनेक प्रजातियां बस्तर में पाई जाती हैं। यह कई आकर और माप के होते हैं। कुछ कांदे कड़वे और बेस्वाद होते हैं जबकि कुछ खाने में स्वादिष्ट और पोषक होते हैं। इन्हे कच्चा , उबालकर या भून कर खाया जाता है।
बोढ़ा -
बोढ़ा, आलू के सामान दिखनेवाला एक प्रकार का कंद है जो सरई वृक्ष के जंगलों में बरसात के मौसम में उगता है। पहली बरसात के तुरंत बादयह स्वतः ही ज़मीन के अंदर उपजने लगता है। बोढ़ा का ऊपरी छिलका थोड़ा कड़ा होता है जिसके अंदर बहुत ही स्वादिष्ट और पौष्टिक गूदा होता है। यह पहले केवल आदिवासी और स्थानिय लोग ही खाते थे पर अब यह बाहरी शहरों में भी बिकने लगा है इससे इसकी कीमत बढ़ गयी है।
बोढ़ा दो प्रकार का होता है ,पहली बरसात के बाद उगने वाला बोढ़ा जिसका गूदा सफ़ेद होता है उसे जात बोढ़ा कहते हैं। यह अधिक स्वादिष्ट होता है। इसके कुछ समय बाद उगने वाले बोढ़ा का गूदा कुछ कालापन लिए होता है ,उसे राखड़ी बोढ़ा कहते हैं ,यह उतना स्वादिष्ट नहीं होता। इसे रसेदार और सूखी सब्जी जैसा पकाया जाता है।
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बोढ़ा
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आलू कांदा
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उबला आलू कांदा
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केयू कांदा , केयू कांदा देखने में बड़े अदरक जैसा लगता है। इसकी सब्जी पकाकर खाई जाती हैं।
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कोचई कांदा ,प्राकृतिक तौर पर जमीन के नीचे उगता है। इसकी सब्जी पकाकर खाई जाती हैं।
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डांग कांदा
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डांग कांदा
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सेमली कांदा
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पीता कांदा
कुमड़ा -
कद्दू प्रजाति के फलों को बस्तर में कुमड़ा कहते हैं। यह अनेक प्रकार के होते हैं जैसे पेठा बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाला सफ़ेद कद्दू जिसे रखिआ कुमड़ा कहा जाता है। सामान्य पीला कद्दू जिसे मीठा कुमड़ा कहते हैं। हरा कद्दू जिसे हरा कुमड़ा कहा जाता है। इन्हे पका कर भय जाता है। इन्हे कद्दूकस करके उड़द दाल के साथ पीसकर वड़ियाँ बनाई जाती हैं।
रखिआ कुमड़ा
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रखिआ कुमड़ा
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मीठा कुमड़ा
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हरा कुमड़ा
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चिरचिंडा
बीज -
बस्तर क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की फलियों के बीज निकालकर उनको सब्जी की भांति पकाकर खाने का प्रचलन है। इनमे सेम और बरबटी के बीज बहुत लोकप्रिय हैं।
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सेम बीजा
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बरबटी बीजा
जंगली फल -
इस क्षेत्र में उगने वाले जंगली फल जैसे महुआ ,इमली , आंवला , केला एवं सीताफल आदि यहाँ के लोगों के आहार का प्रमुख अंग हैं।
महुआ
महुआ वृक्ष बस्तर की आदिवासी संस्कृति और उनके आर्थिक जीवन का एक अहम् अंग है। इसके तने की छाल , इसके फूल और फल सभी काम आते हैं। जिसके पास दस महुआ वृक्ष हों उसे गांव में संपन्न व्यक्ति माना जाता है। एक महुआ वृक्ष साल भर में दो से पांच क्विण्टल फूल और पचास-साठ किलो फल देता है। इसके तने की छाल का उपयोग पेट सम्बन्धी बीमारियों में औषधि के रूप में किया जाता है। इसकी छाल को रात भर पानी में भिगोकर रखा जाता है और सुबह उस पानी को रोगी को पिलाया जाता है। महुआ का फल टोरी कहलता है ,इसके अंदर से निकलने वाले बीज को सुखाकर उससे तेल निकाला जाता है। महुआ बीज का तेल, ठंडक पाकर नारियल के तेल के समान जम जाता है। इसे खाने के काम में लिया जाता है ,सब्जी -भाजी छोंकने में इसे प्रयोग किया जाता है। यह तेल त्वचा के लिए उत्तम माना जाता है , ठण्ड के मौसम में त्वचा को फटने से बचाने के लिए इसे शरीर पर लगाया जाता है। पहले मुरिया -माड़िआ आदिवासी सरई और खुरसा के साथ महुआ फूल की सब्जी बनकर भी खाते थे।
महुआ का वृक्ष वर्ष में एक बार फूलता है , फूल फरवरी माह से जून माह तक झड़ते हैं। अलग - अलग वृक्षों में आगे -पीछे फूल आते हैं। इसके फूल बीनकर जमा कर लिए जाते हैं और उन्हें सुखाकर उनसे मंद बनाई जाती है। पहले फूलों से बनाई गयी मंद, सर्वप्रथम घर के देवी -दवताओं को अर्पित की जायेगी उसके बाद लोग उसका पीना आरम्भ करते हैं। बस्तर में देव -धामी में महुआ मंद सर्वोपरि है , इसे अर्पित किये बिना किसी भी देवी -देवता को प्रसन्न करना संभव नहीं है।
हाट बाजार में महुआ बेचती महिला।
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ताजा महुआ फल।
सूखा हुआ महुआ फल।
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आंवरा / आंवला
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छीता पाक /सीताफल
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केला
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आमी हरदी / कच्ची हल्दी
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अमली / तैतर / इमली
मछली -
बस्तर के लोग बड़ी मछलियों के अतिरिक्त अनेक प्रकार की छोटी मछलियों और झींगों को खाते हैं जो वर्षा के दौरान खेतो ,जोहड़ों , गड्डों , तालाबों और नालों में उत्पन्न हो जाती हैं। यह मछलियां ताजा भी खायी जाती हैं और इन्हें सुखाकर भी खाया जाता है।
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मंगरी मछरी
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झींगा
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कोचिया मछरी
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गोरसी मछली
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बामी मछली
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कड़वा मछली
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तुरुंजा मछली
वड़ियाँ –
बस्तर के लोग अनेक प्रकार की वड़ियाँ बनाते हैं। उड़द की दाल को भिगोकर , उसका छिलका निकाल कर , उसे पीसकर उसके पेस्ट से वड़ियाँ बनाई जाती हैं। यह वड़ियाँ अकार में बड़ी और भारी होती हैं। इनकी पौष्टिकता बढ़ाने के लिए उड़द की दाल के पेस्ट में कुमड़ा , पपीता , लौकी आदि के गूदे का पेस्ट मिला दिया जाता है। गर्मी के दिनों में जब सब्जियां मिलना कम हो जाती हैं , तब इन्हे पका कर खाया जाता है।
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रखिया बड़ी –रखिया, कददू प्रजाति का एक फल होता है जिसे लोग घर की बाड़ी में उगते हैं। इसका छिलका निकालकर, इसका कददूकस करके बारीक पेस्ट बना लेते हैं। अब उड़द की दाल को भिगोकर पीस लेते हैं और इसमें रखिया का पेस्ट मिलकर उसकी बड़ियाँ बनाकर सुखा लेते हैं। यह बड़ी , सब्जी की तरह पकाकर खाई जाती हैं।
पोहा
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नक्खी बड़ी –उड़द दाल की बड़ियाँ , नक्खी बड़ी कहलाती हैं। उड़द की दाल को भिगोकर पीस लेते हैं और उसकी बड़ियाँ बनाकर सुखा लेते हैं। यह बड़ी , सब्जी की तरह पकाकर खाई जाती हैं।
अन्य खाद्य सामग्रियां -
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चिउड़ा / पोहा - यह चावल को कूट कर बनाया जाता है। इसे भिगोकर और नमक -मिर्च मिलाकर खाया जाता है।
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चापड़ा चटनी – ,बस्तर के आदिवासियों द्वारा बुखार एवं अन्य बीमारियों को दूर करने के लिए खाया जाने वाला विशेष भोजन है। वे लाल -पीले चींटों के बिलों से उनके अंडे -लार्वा के गुच्छे निकालकर उन्हें खाते हैं। इसमें प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है। यहाँ के हाट बाज़ारों में यह सुगमता से मिल जाता है।
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चापड़ा चटनी
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गुड़ -बस्तर के किसान यहाँ उत्पन्न होने वाले गन्ने से रस निकलकर उससे गुड़ तैयार करते हैं। यह गुड़ छोटी गेंद के आकर में बनाया जाता है।
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गुड़िया खाजा -यह बस्तर दशहरा के अवसर पर बनाई जाने वाली विशेष मिठाई है जिसे चावल के आंटे में गुड़ मिलाकर तैयार किया जाता है। इसे पूजा में प्रसाद स्वरुप चढ़ाया जाता है।
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नारियल मीठी - यह बस्तर दशहरा के अवसर पर बनाई जाने वाली विशेष मिठाई है जिसे नारियल के बुरादे को शक्कर में पगाकर तैयार किया जाता है। इसे पूजा में प्रसाद स्वरुप चढ़ाया जाता है।
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मीठा वड़ा -इसे चावल के आंटे और गुड़ के घोल से बनाया और तेल में तलकर तैयार किया जाता है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.